लखनऊ: ‘पाबंदी’अंत की ओर बढ़ती ‘भयभीत सत्ता ‘की निशानी होती है- अखिलेश

पाबंदी’ अंत की ओर बढ़ती ‘भयभीत सत्ता’ की निशानी होती है।
लोकप्रिय यूट्यूब चैनल बंद करने या किसी लोकगायिका पर एफ़आइआर के पीछे असली वजह दर्शकों के बीच नकारे जा चुके, उन बड़े न्यूज़ चैनलों को बचाने की है, जिनका सत्ता से वो नालबद्ध संबंध है, जिसका आर्थिक सिद्धांत है : ‘जिसका दाना, उसका गाना’। इन जुमलाई चैनलों का झूठ अब सिर्फ़ वही देख रहा है, जो आज तक ये नहीं समझ पाया है कि उसकी भावनाओं का शोषण करके उसे लगातार मूर्ख बनाया जा रहा है और बनाए रखा भी जा रहा है। ये मूर्खता की डेली डोज़ परोसनेवाले तथाकथित बड़े न्यूज़ चैनल हैं। सत्ता की असली चिंता ये है कि ऐसे ‘माउथऑरगन’ चैनल चले गये तो सत्ताधारी अपने लगातार घटते समर्थकों को कैसे बचाएंगे अपना नफ़रती एजेंडा कैसे चलाएंगे, उनकी हर गलत बात को सही साबित करनेवाले ‘मूढ़ लोग’ कहाँ से लाएंगे।
ये वो तथाकथित बड़े न्यूज़ चैनल्स हैं, जो दो लोगों के बीच ‘आग जलाकर’ शांतिपूर्ण वार्ता करते हैं। ऐसे कर्तव्यच्युत चैनल उन परंपरागत बदज़ुबान लोगों को भी बुलाते हैं जिनको मुक्त रूप से अपशब्द कहने की छूट है और जिनके दुष्कथन कहते समय उनके प्रोग्राम के संचालक सुनने, समझने व देखने की शक्ति कुछ समय के लिए खो देते हैं। जिस जहाज के खेवनहार ऐसे ‘इंद्रियों से हीन’ असंवेदनशील लोग होंगे, उनको डूबने से कोई नहीं बचा सकता। इनके मालिक लोग जब अपने कर्म और कर्तव्य के सगे नहीं हैं तो वो ऐसे संचालकों को क्या बचाएंगे जिनका वजन ‘पत्रकारिता-धर्म निभाने की तराज़ू’ पर शून्य से भी नीचे है।
ऐसी पाबंदियों से सबसे अच्छी बात ये हुई है कि आम जनता के सामने डरी हुई भाजपा के चेहरे का खुलासा हो गया है। भाजपा जिस झूठ के सहारे खड़ी थी, सत्ता के लाउडस्पीकर बने उन डूबते चैनलों में भगदड़ मची है, कोई इधर से उधर जा रहा है, कोई उधर से इधर आ रहा है, आपस में पाले बदले जा रहे हैं लेकिन इन सत्ता समर्थित न्यूज़ चैनलों को दर्शक नहीं मिल पा रहे हैं। कोई अपने कर्मचारियों को परफ़ॉर्मेंस सुधारने का नोटिस थमा रहा है लेकिन इनसे कुछ होनेवाला नहीं क्योंकि इनके समाचारों में उस सत्य के सिवा बाक़ी सब कुछ है, जो जनता के विश्वास की नींव होता है, और जो जनता को दर्शक में बदलता है। रंग-बिरंगे बचकाने ग्राफ़िक्स; सड़क की झांकियों जैसे हास्यास्पद सेट; तुकबंदी को आत्महत्या के लिए मजबूर करते भड़काऊ और बचकाने शीर्षक और हेड लाइन्स; असंगत-संगीत का दुरुपयोग भी इनके ‘टीआरपी के दिवालियापन’ का इलाज नहीं हो सकता है। ये आत्ममुग्ध, रीढ़हीन चैनल्स आख़िरी स्टेज में हैं।
कुल मिलाकर लोकप्रिय यूट्यूब चैनलों को बंद करना या एफ़आइआर कराना, नैतिक और भौतिक रूप से मरणासन्न ‘गूँगी मीडिया’ को बचाने का निरर्थक प्रयास है। सत्ता का ये प्रयास निरर्थक इसलिए है क्योंकि जनता का पक्ष रखनेवाले, सच में जागरण लानेवाले इन स्वत: पोषित लोकप्रिय छोटे यूट्यूब चैनलों के दर्शक मानसिक रूप से सजग और सचेत हैं, ये कभी भी ‘जुमलाई टीवी चैनलों’ के दर्शक नहीं बनेंगे। दूसरी तरफ़ जब हर हाथ में मोबाइल है तो €सिटिज़न जर्नलिज्म’ के इस अति सक्रिय दौर में क्या सत्ता करोड़ों लोगों पर पाबंदी लगा सकती है। आक्रोशित जनता का सामना तो एक न एक दिन सत्ताधारियों को करना ही पड़ेगा।
ये सच्ची आवाज़ों को बुलंद करने का समय है। सच्चा इतिहास गवाह है कि क्रांतिकारी क़लम और चैतन्य कलाकारों की एकता ने इतिहास को नकारात्मक होने से बचाया है। आइए एकजुट हो जाएं अभिव्यक्ति के साथ-साथ देश की आज़ादी, लोकतंत्र और उस संविधान को भी बचाएं, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। इसीलिए सभी सच्चे यूट्यूब न्यूज़ व क्रिएटिव चैनलों से खुली अपील है कि वो ऐसी कार्रवाइयों से डरें नहीं और एकजुट होकर इसकी आलोचना करें क्योंकि कोई ‘आज़ाद -ख़याल इंक़लाबी’ ये लिखने की प्रेरणा देकर गया है कि “लगेगी पाबंदी तो आएंगे कई और सच्चे चैनल्स भी इसकी ज़द में, यहाँ कोई अकेला चैनल थोड़ी है।” (सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का 30 अप्रैल 2025 का ट्वीट)