गाजीपुर:जाति जनगणना से प्राप्त आंकड़े और उसपर अमल की हकीकत

गाजीपुर: बिहार में जाति जनगणना करने वाले एक शिक्षक ने जाति जनगणना की हकीकत और उससे प्राप्त आंकड़ों पर वास्तविक अमल पर प्रकाश डाला है। आईये देखते हैं शिक्षक निरज सिंह के विचार” जाति जनगणना हमारे बिहार में हो चुकी है। और मास्टर होने के नाते हम उन महानतम लोगों में हैं जिन्होंने दरवाजे दरवाजे पर फेरी लगा कर “कौन जात हो कक्का?” पूछा था, इसलिए हमारी बात तनिक ध्यान से ही सुनी जानी चाहिये। तो साहबे आलम! जिल्ले इलाही! बात यह है कि यह मास्टर स्ट्रोक वस्तुतः फुसकी बम है। बिहार में जाति जनगणना होने के पूर्व ‘पक्ष और विपक्ष’ इस विषय पर जितना हल्ला कर रहे थे, जनगणना का आंकड़ा मिलने के बाद उसके दसवें हिस्से बराबर बात भी नहीं करते।
दरअसल जाति जनगणना की मांग करना या उसे सम्पन्न कराना तो सहज है, पर उसके आंकड़ों के हिसाब से प्रतिनिधित्व देना उतना ही कठिन। यह काम इतना कठिन है कि कोई राजनैतिक दल इसपर बात तक नहीं करेगा। उदाहरण देख लीजिये- बिहार में मुसहर जाति की संख्या 3.08 प्रतिशत है और कुर्मी 2.87 प्रतिशत। विधान सभा में जहाँ कुर्मी जाति के 9 विधायक हैं वहीं मुसहर जाति का केवल एक। क्या बिहार में जाति जनगणना के लिए बेचैन दल अगले विधानसभा चुनावों में मुसहर जाति को उनकी संख्या के हिसाब से टिकट देंगे? स्पष्ट है कि नहीं देंगे। तो अंततः चुप्पी साधेंगे।
ऐसा केवल मुसहर जाति के साथ नहीं है। हजाम, बनिया, नोनिया सहित अनेकों जातियां हैं जिनका विधानसभा में प्रतिनिधित्व ना के बराबर है। वहीं यादव, राजपूत, भूमिहार, कुर्मी, कुशवाहा जैसी जातियां भी हैं, जिन्होंने अपनी संख्या के हिसाब से तीन गुने चार गुने विधायक भेजे हैं। हर पार्टी उन्हें खूब टिकट देती है। 14% यादवों के अधिकतम 34 विधायक बनते हैं, जबकि कुल 52 हैं। 2015 में तो कुल 65 थे। कुछ जातियां ऐसी भी हैं जो लंबे समय से उतनी ही हिस्सेदारी लिए हुए हैं जितना उनका बनता है। बिहार में ब्राह्मणों की संख्या 3.65% है, इस हिसाब से उनके कुल 10 विधायक बनते हैं और सदन में उनकी संख्या 11 है।
अब क्या बिहार में ऐसा कोई भी दल है जो कहे कि हर जाति को उसकी संख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। मेरा दावा है, ऐसा कोई भी नहीं कह सकेगा। वे जानते हैं, ऐसा करने लगे तो फेल हो जाएंगे क्योंकि यह तरीका ही व्यवहारिक नहीं है। यही कारण है कि जाति जनगणना के बाद ही उसकी चर्चा बन्द हो गयी। और जाति जनगणना होने के साल भर बाद हुए लोकसभा चुनावों में भी इसका कोई असर नहीं दिखा।
अब बात कर लेते हैं सरकारी नौकरियों की। सरकारी नौकरियों की भी लगभग यही स्थिति है। यह सच है कि अनारक्षित कोटे में सवर्ण और खासकर ब्राह्मण अपनी संख्या से अधिक नौकरी पाते रहे हैं, पर पिछले कुछ दशकों में स्थिति बहुत तेजी से बदली है। अब अनारक्षित कोटे में ओबीसी कैटेगरी के बच्चे भरपूर संख्या में आते हैं। लेकिन यदि जाति के हिसाब से देखें तो दर्जनों जातियां हैं जो नौकरी में बिल्कुल ही नहीं हैं। क्या कोई भी सरकार यह हिम्मत करेगी कि हर जाति को उसकी जनसंख्या के हिसाब से सरकारी नौकरियों में हिस्सा देने की व्यवस्था बना दे? नहीं। क्योंकि तब केवल सवर्ण ही नहीं, बल्कि ओबीसी की ही अनेक जातियां विरोध में उतर जाएंगी।
तो कुल मिला कर बात यह है सब हवा है। अधिकतम यह होगा कि सवर्णों को सीधा करने के दावे के साथ रिजर्वेशन का कोटा बढ़ेगा। पर जितनी मेरी समझ है, उस हिसाब से किसी का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है। जो है वह केवल और केवल राजनीति ही है।
हाँ, इसी बहाने सवर्ण खासकर ब्राह्मण बच्चों से एक बात कहना चाहेंगे। सरकारी नौकरी का लोभ छोड़ों यारों, कुछ नहीं रखा। अपना रोजगार तलाशो… हम जैसे हजारों सरकारी कर्मी हैं जो दाल रोटी से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। सब भरम है।(निरज सिंह “अजेय” के फेसबुक वॉल से)